बीरूबाला डायन प्रथा के खिलाफ शुरुआती संग्राम में बहुत व अनेक बाधाएं आई। मुझे लाठी-डंडे और धारदार हथियार से कई बार जानलेवा हमला किया गया।
गांव वालों ने मुझसे लिखित लिया गया कि दोबारा गांव मैं कदम नहीं रखूंगी। मुझे चप्पलों एवं जूतों की माला बनाने का भी प्रयास किया गया। बहुत धमकियां मिली लेकिन मैंने फिर भी हार नहीं मानी। आज डायन शिकार करने वाले लोग मेरे नाम से खौफ खाते हैं।
72 वर्षीय वीरू वाला राभा जब यह बात करती है तो उनका चेहरा साहस और आत्मविश्वास से चमकने लगता है।
भारत सरकार ने असम के सामाजिक कार्यकर्ता वीरू वाला को इस साल पद्म श्री पुरस्कार देने की घोषणा कर रखी है
वीरू वाला आगे बताती है कि राभा जनजाति से आने वाली दुबली पतली और छोटी कद काठी वाला जादू टोना करने वाले कथित अब तारों से अब तक 40 से अधिक ग्रामीणों की जान बचाई है इनमें अधिकतर पीड़ित महिलाएं हैं।
वह आगे कहती है कि पद्मश्री मिलने से वह बहुत खुश है इससे डायन हत्या जैसे अंधविश्वास के खिलाफ आगे लड़ने में और सहयोग व मदद मिलेगी।
मैं जब 1998 में झाड़-फूंक करने वाले “देवधोनी “अर्थात कथित अवतारों के खिलाफ खड़ी हुई थी उसमें प्रशासन से पूरी सहायता भी नहीं मिलती थी।
लेकिन 2005 में जब मेरा नाम नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया उसके बाद से पुलिस तथा प्रशासन के लोग मेरी मदद के लिए आगे आने लगे।
आंदोलन की बदौलत बना कानून डायन हत्या जैसी कुप्रथा के खिलाफ बीरूवाला के आंदोलन की बदौलत असम सरकार ने 2015 में असम डायन प्रतिडन कानून बनाया।
इस कानून में किसी को डायन करार देना या फिर डायन के नाम पर किसी का शारीरिक और मानसिक शोषण करने को संज्ञेय अपराध माना जाता है।
इस कानून में किसी अभियुक्त को 5 बर्ष के कारावास से लेकर आजीवन कारावास की सजा हो सकती है
शिक्षा और स्वास्थ सेवाओं में सुधार के साथ अब लोग ठगी करने वाले तांत्रिक औरओझाओं के पास जाना छोड़ रहे हैं।
आगे कहती हैं कि जनजातीय समाज में यहअंधविश्वास और कुप्रथा अभी पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है।
इसके लिए खास करके आदिवासी महिलाओं को शिक्षित करना बेहद जरूरी है या है अंधविश्वासों सैकड़ों साल पुरानी प्रथा की जड़े हैं जिसे खत्म करने के लिए आगे बहुत काम करना है